४ सितारे
अनुराग कश्यप के पात्र सचमुच UGLY हैं. डर यह है की उनमे से आप भी एक हो सकते हैं.
क्या आप फ़ेसबुक पर दोस्तों की 'विश यू वर हियर' टाइप की हॉलिडे फोटो देख कर अपने कंप्यूटर को बिल्डिंग की सबसे ऊपरी मंज़िल से ज़मीन पर पटक देने की सोचते हैं?
क्या आपको स्माइली फेसस और 'आई हार्ट यू' टाइप के ईमोटीकानो से चिढ़ है? और जो लोग इनका इस्तेमाल करते हैं उनका आपने अपने मन में कई बार पत्थर से मार मार कर सर फोड़ दिया है?
क्या आप समझते हैं की इन्वेस्टिगेशन डिस्कवरी चॅनेल किसी भी चॅनेल से बेहतर है?
क्या आप फिल्में दिमाग़ को घर रख कर देखने के आदि है?
क्या आपने कभी प्याज़ को ध्यान से देखा है?
बॉस! बाकी प्रश्न तो समझ में आ गये. यह प्याज़ वाला प्रश्न कुछ समझा नही.
अनुराग कश्यप के पात्र सचमुच UGLY हैं. डर यह है की उनमे से आप भी एक हो सकते हैं.
क्या आप फ़ेसबुक पर दोस्तों की 'विश यू वर हियर' टाइप की हॉलिडे फोटो देख कर अपने कंप्यूटर को बिल्डिंग की सबसे ऊपरी मंज़िल से ज़मीन पर पटक देने की सोचते हैं?
क्या आपको स्माइली फेसस और 'आई हार्ट यू' टाइप के ईमोटीकानो से चिढ़ है? और जो लोग इनका इस्तेमाल करते हैं उनका आपने अपने मन में कई बार पत्थर से मार मार कर सर फोड़ दिया है?
क्या आप समझते हैं की इन्वेस्टिगेशन डिस्कवरी चॅनेल किसी भी चॅनेल से बेहतर है?
क्या आप फिल्में दिमाग़ को घर रख कर देखने के आदि है?
क्या आपने कभी प्याज़ को ध्यान से देखा है?
बॉस! बाकी प्रश्न तो समझ में आ गये. यह प्याज़ वाला प्रश्न कुछ समझा नही.
तब आप Ugly ज़रूर देखें.
हर प्रश्न का उत्तर अगर 'हाँ' है, तो आपको यह फिल्म ज़रूर पसंद आएगी. क्योंकि सब लोग फ़ेसबुक पर 'हाउ क्यूट', 'सो नाइस' करने में लगे हैं, और आप हैं की सोशियल मीडीया पर फूँक फूँक कर कॉमेंट करते हैं. (याद है, स्कूल वाली फ्रेंड को पति के साथ देख कर आपने कॉमेंट किया था, 'वॉट ए लव्ली फादर-डॉटर पिक्चर'). और लोगों की फ़ितरत से अच्छी तरह से वाकिफ़ हैं. आपको इस फिल्म के बारे में बताने की ज़रूरत ही नही. गॅरेंटी है की आपको यह फिल्म पसंद आएगी.
अगर आप अब भी मेरे प्याज़ वाले सवाल पर अटके पड़े हैं, तो सुनिए.
अनुराग कश्यप ने ऐसे पात्रों को इकट्ठा किया है जो प्याज़ की तरह हैं. मानो वो फिल्म नही, प्याज़ का सूप बना रहे हों.
हर पात्र प्याज़ की तरह परतों वाला है. जैसे जैसे अनुराग कश्यप की छुरी उनपर से एक परत निकाल देती है, वैसे वैसे नयी, रसभरी परत आपके सामने आ जाती है. प्याज़ के छिलने से जैसे आपके आँखों से आँसू निकल पड़ते हैं, वोही आँसू आप थियेटर के अंधेरे में महसूस करते हैं. नैराश्य के आँसू. आप तो हीरो और विलेन वाली फ़िल्मो के आदि हैं, ना? जब हीरो विलेन में बदल जाता है, और विलेन में आपको अच्छाई नज़र आने लगती है, तब आपके पास दाँत पीस कर फिल्म आगे देखने के अलावा कोई चारा नही रह जाता. आप जाधव, राहुल, डिटेक्षन साहेब की बात भी समझते हैं, और दूसरी तरफ शालिनी और राखी को भी. आपको कभी राहुल कपूर पर शक होता है, कभी उसके दोस्त चैतन्य पर.
इस प्याज़ के सूप से आपको बदहज़मी होगी ज़रूर. लेकिन इस सूप से आम बकवास फिल्मों से मन उठ जाएगा.
मैं दावे के साथ कह सकती हूँ की इस साल रिलीज़ हुई फिल्मों में बस क्वीन और अब अग्ली में ही ऐसे पात्र हैं, जो आपको वास्तविक लगते हैं. और इतने वास्तविक की हर पात्र के हर परत के उतरते ही भुनी हुए चमडी की बदबू मानो सारे थियेटर में फैल जाती हो. आप पॉपकॉर्न खरीद तो लाए थे, लेकिन जलती हुई सभ्यता की परत की बू आपको पॉपकॉर्न खाने नही देती. आप कोल्ड ड्रिंक ले तो आए हैं, लेकिन 'खोई हुई बच्ची ने क्या कुछ खाया है? क्या कुछ पिया है?' ऐसे सवाल आपको स्ट्रॉ से सुड़कने से रोक देती है.
आख़िर इतने पात्रो से लगाव क्यों? इतनी समवेदना कैसे? आप ना पुलिसवाले हैं, ना आप कभी किसी बच्चे को अगुआ करने वाले. और यही तो खूबी है इस फिल्म की. ऐसा झींझोड़ कर रख देगी यह फिल्म, आप बाहर निकल कर पास वाले बार में संतुलन ढूंडने घुस जाएँगे.
इतनी तारीफ? क्यों नही? गटर के पानी से सनी हुई मैली सडकों पर गिरे हुए डीज़ल में इंद्रधनुषी रंग देख सकना भी एक कला है. और अनुराग कश्यप ऐसी स्याह रंग बड़ी खूबी से अपनी फिल्मों में भरते हैं.
हाँ, जब बेरहमी हद पार कर देती है तो आप पूछने पर मजबूर हो जाते है, की क्या यह ज़रूरी था? बार में बंदूके खरीदना बहुत ही कन्ट्राइव्ड लगता है. फिल्म अपने ही स्याह रंग में ऐसा डूबती है की कहानी की कमियों को अनदेखा किया ऐसे लगता है. जिस पुलिसवाले को संदिग्ध पात्र पर नज़र रखने को कहा था, वो कर क्या रहा था? अगर उसने अपना काम किया होता तो पूरी फिल्म एक घंटे में ख़त्म हो गयी होती. और इतने कंप्यूटर एक्सपर्ट्स अगर पुलिसवालों के पास हैं, तो उनका काम इतना फीका क्यों? कंप्यूटर का आई. पी. अड्रेस ढूंडने के लिए इतने कंप्यूटर ज़प्त करने की ज़रूरत नही होती. दिखने में अच्छा तो दिखता है, बस कहानी को कमज़ोर कर देता है.
इन सबके बावजूद यह फिल्म (क्वीन के बाद) साल की सबसे बेहतरीन फिल्म साबित होगी. अगले साल आप फिर अपने दिमाग़ को सुस्ताने दें. लेकिन इस फिल्म को देखें ज़रूर.
आख़िरी विचार:
कहते हैं क्रिस्मस का त्योहार खुशियों का है. खुशियों के मौके पर इस फिल्म को रिलीज़ कर अनुराग कश्यप ने यह साबित कर दिया है की वो भी फ़ेसबुक पर दोस्तों की 'आई हार्ट यू किटन्स' वाली पोस्ट्स देख कर उल्टिया कर दिया करते हैं.
2 comments:
"गटर के पानी से सनी हुई मैली सडकों पर गिरे हुए डीज़ल में इंद्रधनुषी रंग देख सकना भी एक कला है."
अदभूत! (ठीक उसी तरह से जैसे चैतन्य शालिनी कों लाल कपडे में देख के बोलता है|)
Awesome!
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